*जीवन देने वाली माता है बतकम्मा* अब यह त्यौहार बीजापुर की सांस्कृतिक विरासत है:- साहित्यकार बीरा राजबाबू ‘प्रखर’बीजापुर की कलम से ==00== ,,,,,,,,,,,,,,,,,,तेजनारायण सिंह की रिपोर्ट,,,,,,,,,,,,,,,,

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*जीवन देने वाली माता है बतकम्मा*
अब यह त्यौहार बीजापुर की सांस्कृतिक विरासत है:- साहित्यकार बीरा राजबाबू ‘प्रखर’बीजापुर की कलम से
==00==

,,,,,,,,,,,,,,,,,,तेजनारायण सिंह की रिपोर्ट,,,,,,,,,,,,,,,,

बतकम्मा तेलगू शब्द है जिसका संधि विच्छेद बतकू + अम्मा होता है। बतकू का अर्थ जीवन तथा अम्मा का मतलब माँ होता है। जीवन देने वाली माँ ही बतकम्मा है जो गौरी माताहै। बीजापुर जिला तेलंगाना और महाराष्ट्र की सीमा से लगा हुआ होने के कारण वहां के तीज-त्यौहार को बीजापुर मे भी अब प्रमुखता से मनाया जाने लगा है। बतकम्मा का त्यौहार तेलंगाना का प्रमुख पर्व है जिसे शारदीय नवरात्र में आश्विन मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या से आरम्भ से कुल 9 दिनों तक बडे ही धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । अब यह त्यौहार बीजापुर जिले की संस्कृति बन गई है। यह पर्व विशेष रूप से सभी वर्ग की महिलाओं द्वारा मनाया जाता है जिसे बच्चे से लेकर वृद्ध तक अपने अपने पारा मोहल्ला या किसी सार्वजनिक स्थल पर समूह मे एकत्रित होकर तुलसी के पौधे के साथ गौरम्मा (गौरी माता) की स्थापना कर पूजा किया जाता है। महिलाएं भोर मे उठकर अनेक प्रकार के फूल तोड़कर लाते हैं और उपवास रहकर उनकी माला बनाते हैं। एक प्लेट या परात मे फूलों की मालाओं को उनके आकार के अनुसार बडे से छोटे क्रम मे शंकु के आकार मे सजाया जाता है। मालाओं से सजाने के दौरान अंदरुनी भाग जिसे गोपुरम कहते हैं उसमे सेम, तोरई व अन्य पत्तियों से भर दिया जाता है ताकि मालाएं एक दूसरे से जुड़ी रहें। सबसे
ऊपरी भाग मे अंतिम छोटी माला के बीच जो खाली जगह होती है उसे कद्दू के पीले फूल को रखा जाता है जिसका मध्य भाग उभरा हुआ होने के कारण शंकु के आकार को पूर्णता मिलती है और यह ही “बतकम्मा” कहलाता है।
संध्याकाल मे नौ दिन महिलाएं बतकम्मा को निर्धारित स्थल पर गौरम्मा या तुलसी पौधे के गोल रखकर घेरे मे कतारबद्ध होकर गीत गाते व दोनों हाथों से ताली बजाते हुए नृत्य करते हैं। प्रत्येक गीत मे कोई भी एक महिला प्रमुख रूप से गीत गाती हैं और शेष कोरस देते हुए ताली बजाते हैं। भौंरे, तितलियां आदि फूलों के रस चूसने के कारण पहले दिवस को एंगली फूल (झूठे फूल) कहते हैं। आठवें दिवस मे विराम होता है ताकी अंतिम दिन अधिक से अधिक फूल मिल सके व बड़ा बतकम्मा बना सके जिसे अररेम कहते हैं। अंतिम दिन को सददूला बतकम्मा कहते हैं जिसे बडे से बड़ा बतकम्मा बनाकर मनाते हैं और आधी रात या सुबह तक बतकम्मा के गीतों को गाते हुए व रिकारडेड गानों की धुन पर नाचते हैं। प्रतिदिन की तरह ग्राम की सुख शांति व बरकत की प्रार्थना के साथ तालाब,नदी या नाले मे विसर्जित किया जाता है व प्रसाद वितरण किया जाता है। इस पर्व मे बस्तर के गोंचा पर्व की तरह लड़के महिलाओं को गोंचा से मारते हैं इसे तेलगू मे पापडी गोंटम कहते हैं।

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