अखंड गोंडवाना(भारत) आंदोलन के संस्थापक शंकर शाह रघुनाथ शाह मंडावी का 165 वीं हास पेन दिन आज ,,,, दीपक मरकाम की रिपोर्ट ,,,,,,,,,,
लंकाकोट ::::::: अमर शहीद राजा शंकरशाह मडावी एवं राजे रघुनाथशाह मडावी का बलिदान दिवस दिनांक १८ सितम्बर,गोंडवाना शहीदो की गौरव गाथा भावपूर्ण पेन जोहार शत-शत सेवा जोहरनी अमर रहें ।
भारत के मूलनिवासियों का शौर्य, पराक्रम साहित्य, कला, अर्थात हमारा समूचा व्यक्तित्व, हमारी समूची अस्मिता ही नकार दी जाती है. न स्वाधीनता संग्राम में बहे हमारे रक्त का स्मरण होता है, न देश की सांस्कृतिक हरियाली को बनायें रखने व सींचने में हुये हमारे योगदान का उल्लेख. इस तरह की नीति समाप्त होना चाहिये और हमें अपने सभी भाई बहनों को गले से ही लगायें ही नहीं बल्कि अब तक हमारी उपेक्षा की जो भूल हमसे हुई है उसके प्रायश्चित स्वरूप वर्तमान विकास की धारा में आव्हान करें- तन से, मन से, धन से, यही समाज प्रेमियों से अपेक्षा है और इसी को मुखरित करता हुआ प्रस्तुत है महान क्रांतिकारी वीरों के जगमगाते इतिहास का झरोखा.।
भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन का इतिहास, उसकी घटनाओं का विवरण और उसके नायकों के चरित्र-चित्रण मात्र नहीं, बल्कि यह जनता के अंतरमन की असीम गहराईयों का स्वतंत्र होने की गतिमय आंतरिक आकांक्षा और प्रवृत्ति की बाह्य अभिव्यक्ति का एक अनुपम अव्दितीय और अविस्मरणीय उदाहरण भी है, जिसकी दुनिया में कोई मिसाल नहीं है. सन १८५७ के स्वतंत्रता के महासागर की लहर देश व्यापी थी और वे पूर्णत: कभी लुप्त नहीं हुई. इसे देश के मूलनिवासियों के नेतृत्व सम्भालने के बाद में स्वतंत्रता के लिए आंदोलनों का दौर और तेज हुआ. हमारे इस आंदोलन की स्वाभाविक परिणित पूर्ण स्वराज और स्वाधीनता के रूप में हुई और सम्पूर्ण देश की जनता की संयुक्त इच्छा शक्ति और सुदृढ़ चेतना की एक महान संग्रामी विजय दुनिया के इतिहास में दर्ज हुई.।
सन १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हिमालय से गोदावरी तक और बंगाल से मालवा तक क्रांति की ज्वालाएं धधक उठी थी. आजादी के दीवाने पूरे देश में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की समाप्ति के लिए उठ खड़े हुए थे. नर्मदा की सम्पूर्ण घाटी इस आग की लपेट में थी. इस तरह यह क्रांति का एक प्रकार से दबी गरम राख के भीतर दहकती चिंगारियां थी. धीरे-धीरे गरम क्रांति की चिंगारियां सुलगती ज्वाला बन गयी और इस विद्रोह की चिंगारी रोटी, भवन, सुपारी, कमल और लाल मिर्च के माध्यम से दूसरे स्थान तक फैलती जा रही थी. भारत के मध्य में विंध्याचल और सतपुड़ा की उपत्काएँ जहाँ फैली हुई है, उसके पूर्वी भाग का इतिहास बहुत कुछ अंजाना ही है. विंध्याचल सतपुड़ा की गोद में भोज राजा यादवराव ने एक राज्य की आधार शिला रखी. यह गणराज्य गढ़ा नाम से प्रसिद्ध हुआ. इस राज्य (गणराज्य) के अंतिम विचारवान और ख्याति प्राप्त महान क्रांतिकारी शासक संग्रामशाह जिनके ५२ गढ़ थे जिन्हें अखण्ड गोंडवाना का संस्थापक माना गया है. के वंशज, महान देश प्रेमी राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह ने भी ब्रिटिस हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का झंडा फहरा दिया (विद्रोह का बिगुल फूंक दिया). इतिहास के इस घटना क्रम में सन १८५७ का महान विप्लव सामंतवादी वर्ग व्दारा विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने और देश की स्वतंत्रता स्थापित करने के अंतिम प्रयास की अंतिम रूप-रेखा है.।
“आज स्वाधीनता के इस महल में उनके भित्तिचित्र भले ही न हो और प्रार्थना के समय उन्हें भले ही स्मरण न किया जाता हो पर इस गोंडवाना रणबांकुरों के रक्तीले हाथ कहीं न कहीं और कभी न कभी उभरे हुए अवश्य ही दिखाई देंगे. आजादी की लड़ाई लड़ी जाती है और लोहे की उन जंजीरों को काटने के लिये जिनसे सारा राष्ट्र साम्राज्यवादी ताकत से कस दिया जाता है, ये जंजीरे सुनहरी हथौड़ी से कट नहीं सकती और उसके टुकड़े टुकड़े करने के लिये फौलादी या सार्थक हथौड़ी चाहिये, जो लाखों बहादुरों के साथ गोंडवाने की परम्परा रही है”.।
गोंड राजघराने के ७० वर्षीय राजा शंकरशाह और ४० वर्षीय सुपुत्र कुंवर रघुनाथशाह सैनिकों और जनता के बीच गुलामी के खिलाफ स्वाभीमान जगाने का प्रसार-प्रयास कर रहे थे. उन्हें याद दिलाते रहे कि उनका प्रथम कर्तव्य देश और समाज के प्रति है. सितंबर १८५७ के प्रारंभ में ५२ वीं रेजिमेंट के सैनिकों में भी क्रांति की लहर मचल रही थी. ५२ वीं रेजिमेंट के सहयोग से प्राचीन राजवंश के राजाओं/प्रतिनिधियों को गढ़ा मंडला के गोंड राजा शंकरशाह के रूप में उत्साहवर्धक, योग्य साहसी नेता मिला जो अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का दृढ़ संकल्पित था. जिनके पूर्वज अपने देश, राज्य और समाज की स्वतंत्रता के लिए मुगलों से युद्ध करके गोंडवाना की आन, बान, शान के लिए सुकीर्ति का अर्जन कर चुके थे. राजमहल के पारिवारिक कलह के कारण इस समय शंकरशाह पेंशनर थे. उसके पास तीन सौ गांव जागीर के थे और गढ़ा के पास पुरवा के हवेली में रहते थे. जबलपुर रेजीमेंट के अनेक सिपाही उनकी हवेली में उनसे मिलने आते थे और सागर, दमोह, रायपुर तथा अन्य स्थानों पर होने वाली विद्रोही घटनाओं के संबंध में विचार विनिमय करते थे. अंग्रेजों के विरुद्ध कानपुर, लखनऊ, झाँसी, दिल्ली, मेरठ और नागपुर में हो रहे विद्रोह के घटनाओं के समाचार उन्हें मिलते थे. वे विदेशी शासकों के विरुद्ध क्रोध से भरे राजा शंकरशाह ५२ वीं रेजिमेंट के सिपाहियों व अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ जबलपुर छावनी पर आक्रमण करने की गुप्त योजना बना रहे थे. इस तरह राजा शंकरशाह भारत में अंग्रेजों की समाप्ति की हृदय से कामना करते थे और इसके लिए अपनी आराध्य देवी का स्मरण भी किया करते थे. अंत में यह तय हुआ कि मुहर्रम के दिन जबलपुर केंटोंनमेंट पर धावा बोलकर समस्त अंग्रेजों को गिरफ्तार कर केंटोंनमेंट में आग लगा दिया जाय और खजाना लूट लिया जाये. परंतु दो गद्दार सैनिक जमादारों के कारण इस योजना का क्रियान्वयन के पूर्व ही भंडाफोड़ कर दिया गया. इस क्रांति की बाढ़ को रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारी सुरक्षात्मक तैयारी की. हिंसात्मक प्रयोगों के लिए और प्रारंभिक तैयारियों के लिए मदनमहल की पहाड़ियाँ काफी निरापद रही है. विद्रोहियों की छानबीन और सैनिकों में असंतोष के कारणों का पता लगाने के लिए अंग्रेजों ने गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया. राजा शंकरशाह विद्रोहियों के नेता हैं. यह जानकारी अंग्रेजों को मिल चुकी थी. अतः डिप्टी कमीश्नर क्लार्क ने चालाकी से काम लिया. उसने फकीर के वेश में एक चपरासी को विस्तृत जानकारी के लिए राजा के पास भेजा. शंकरशाह ने धोखे में अपनी सम्पूर्ण योजना उस फकीर को बता दी. क्योंकि उस समय कभी क्रांतिकारी साधु फकीर या संयासी का भेष धारण कर घुमा करते वे योजना बनाते थे. भेदियों से जानकारी पाते ही डिप्टी कमिश्नर क्लार्क अपने सहायक २० सवारों और ४० पुलिस के सिपाहियों के साथ १४ सितम्बर १८५७ को राजा शंकरशाह को गिरफ्तार करने के लिए चल पड़ा. राजा जबलपुर से ४ मील दूर स्थित पुरवा गांव के गढ़ी में रहते थे (वर्तमान में अब यह स्थान जबलपुर नगर का एक भाग है). जब राजा की हवेली एक मील दूर रह गई, वह डिप्टी कमिश्नर कुछ घुड़सवारों को साथ लेकर आगे बढ़ गया और उसने पुरवा गांव को तब तक घेरे रखा जब तक कि शेष बल वहां नहीं पहुंच गया. इस तरह डिप्टी कमिश्नर क्लार्क ने पूरे पुरवा गढ़ी को घेर लिया और राजा शंकरशाह को उसके महल में ही उसके सहयोगी पुत्र राजकुमार रघुनाथशाह तथा तेरह अनुयायियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. इन स्वाभिमानी वीरों को हथकड़ियों और बेड़ियों से बांध कर केंटोंनमेंट की सैनिक जेल रेसीडेन्सी (वर्तमान जबलपुर कमिश्नर कार्यालय) ले जाया गया, इसके बाद अंग्रेज सिपाहियों ने राजा के निवास की तलाशी ली तो विद्रोहात्मक प्रवृत्ति के संगठन के संबंध में उन्हें राजा के पलंग के पास एक थैली में कई प्रकार के दस्तावेज मिले. उन दस्तावेजों में राजा शंकरशाह व्दारा हस्तलिखित एक वंदना भी हाथ लगी, जो राजा ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने तथा अपना राज्य स्थापित करने के लिए अपनी आराध्य देवी “कालीका, देवी” से याचना की थी. यह वंदना उस सरकारी घोषणा पत्र के एक ओर लिखी गई थी. जो की मेरठ के विद्रोह के उपरान्त अंग्रेजों ने जारी किया था. राजा शंकरशाह व्दारा लिखित “वंदना” इस प्रकार थी :-
मलेच्छों का मर्दन करो, कालिका माई |
मूंद मुख डंडिन को, चुगली को चबाई खाई,
खूंद डार दुष्टन को, शत्रु संहारिका ||१||
मार अंग्रेज रेंज, कई देई मात चंडी,
बचै नाहि बैरी, बाल बच्चे संचारिका |
शंकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर ||२||
दीन की सुन आय, मात कालिका,
खाई लेई मलेछन को, झैल नहीं करो अब |
मच्छन कर तछन, धौर मात कालिका ||३||
तत्कालीन जबलपुर के कमिश्नर मि. अर्सकिन ने इस वंदना का अंग्रेजी अनुवाद भी कराया था. राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह की गिरफ्तारी से ५२ वी रेजिमेंट के सैनिकों में उत्तेजना फ़ैल गयी. इस रेजिमेंट के सैनिक राजा शंकरशाह के निकट संपर्क में रहकर विद्रोह की तैयारी कर रहे थे. सैनिकों ने राजा को जेल से मुक्त कराने का पूरा प्रयास किया, किन्तु वे असफल रहे. अंग्रेज जानते थे कि राजा शंकरशाह की आजादी अंग्रेजी शासन के लिए बड़ा खतरा है. अत: इन पर मुकदमा चलाने का नाटक किया गया. डिप्टी कमिश्नर और दो ब्रिटिश आधिकारियों की एक सैनिक अदालत बैठाई गयी. अंग्रेज शासनकाल में यह पहला अवसर था कि किसी राजा को गिरफ्तार कर अंग्रजों ने तीन दिन में मौत की सजा सुनाकर तथा उन्हें जिंदा तोप के सामने बांधकर तोप से उड़ा दिया हो. (भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में अंग्रेजों व्दारा कुल दो मर्तबा जीवित व्यक्ति को तोप के मुंह में बांधकर सजा देने का उल्लेख है (पहला शहीद शंकर शाह और रघुनाथ शाह और दूसरा शहीद वीर सिंह) अंग्रेज अदालत ने बड़ी जल्दबाजी में निर्णय दिया, कि राजा और उनका पुत्र भीषण देशद्रोह के अपराधी हैं और उन्हें मृत्युदंड दिया जाये. उनका जीवित रहना भारत सरकार के लिए गंभीर खतरा है अतः उन्हें तत्काल तोप से उड़ा दिया जाय.।
गोंडवाना के गढ़ा मंडला राज्य में अंग्रेजों व्दारा आतंकी की दृष्टि से १८ सितम्बर १८५७ को जबलपुर एजेंसी हॉउस के सामने (वर्तमान प्रांतीय शिक्षण महाविधालय के पास) फांसी परेड हुई. दो तोपें एजेंसी हॉउस के सामने में लायी गयी. तत्पश्चात राजा शंकरशाह और राजकुमार रघुनाथशाह व अन्य पांच साथियों को जेल से लाया गया. उनके चेहरे में दृढ़ता झलक रही थी. एकत्र अपार जन समूह को नियंत्रित करने के लिए पैदल सैनिकों और घुड़सवारों की टुकड़ियां दौड़-दौडकर तोपों के आसपास से बैचेन और उत्तेजित भीड़ को पीछे ढकेल रही थी. राजा शंकरशाह तथा पुत्र रघुनाथशाह की हथकड़ियाँ और पैर की बेड़ियाँ निकालकर उनके पांच दरबारी साथियों के साथ तोप के मुंह में बांध दिये गये. तोप के मुंह में बांधे जाने के समय शंकरशाह ने स्मरण किया कि, हे “कालीका देवी” हमारे बच्चों की सुरक्षा करें जिससे वे अंग्रेजों से बदला ले सके शीघ्र ही तोप धारियों को तोप चलाने की आज्ञा दी गयी और तोप चलाते ही साथियों के साथ पिता-पुत्र के अंग क्षत-बिछ्त होकर चारों ओर बिखर गये. पूरा गढ़ा मंडला का राज्य मातम में डूब गया. रानी फूल कुंवर के व्दारा अधजले शरीर के अवशेष एकत्र करवाये गये. जिस समय रानी अपने पति और पुत्र के क्षत-बिक्षत शव के अवशेष एकत्रित कर रही थी उस समय अंग्रेज अधिकारी बड़ी ख़ुशी और तृप्ति के साथ यह दृश्य देख रहे थे. इस तरह इस देश के महान स्वतंत्रता संग्रामी जो विदेशी अंग्रेजों से गुलामी छुड़ाना चाहते थे, गोंड राजा शंकरशाह पुत्र राजकुमार रघुनाथशाह एवं पांच अन्य सहयोगी साथियों का यह अभूतपूर्व बलिदानों की स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अविस्मरणीय कड़ी के रूप में जुड़ गया. स्थल पर उपस्थित एक अंग्रेज अधिकारी ने इस घटना का वृतांत इस प्रकार किया है-।
“वृद्ध का चेहरा शांत और दृढ़ था. इसके पूर्व भी वह अचल रहा और इसी तरह का भाव उसके ४० वर्षीय पुत्र रघुनाथ शाह के चेहरे पर भी था. उसके हाथ और पैर तोप के निकट ही गिरे क्योंकि वे बंधे हुए थे. सिर और शरीर के उपरी भाग सामने की ओर ५० फुट की दूरी तक बिखर गये. उनके चेहरों की जरा क्षति नहीं पहुंची थी और उनका गरिमा अक्षुण रही.”।
राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा देने के कुछ ही दिनों बाद रानी फूलकुंवर मंडला चली गयी. उन्होंने वहां अपने पति और पुत्र की हत्या का बदला लेने के लिए एक सेना गठित करके अंग्रेजों से डटकर युद्ध किया और रामगढ़, डिंडोरी में सभी सरकारी कर्मचारियों को निकाल बाहर किया. अंत में अंग्रजों की विशाल सैन्य वाहिनी के सम्मुख अपने आपको असमर्थ पाकर और वंश परंपरा के गौरव की रक्षा हेतु एक वीरांगना के सदृश्य पेट में कटार भोंककर रण क्षेत्र में मृत्यु को वरण कर लिया किन्तु जिंदा रहते हुए शत्रु के हाथ में नहीं लगी. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की अमर गाथा गोंडवाना के अनगिनत शहीदों ने अपने रक्त से लिखी है. यही कारण है कि यहाँ के स्वधीनता आन्दोलन का दायरा बड़ा व्यापक और असीमित है. इस विप्लव के अग्नि-पथ पर चलकर यहाँ के महान क्रांतिकारियों ने जिन्दगी और मौत से एक साथ खेला हैं. हमारे स्मरणार्थ शहीदों ने प्रायः इस संघर्ष की लपलपाती हुई ज्वालाओं में छलांग लगाकर अपने अमूल्य प्राणों की बलि ही नहीं चढ़ाई, बल्कि अपने अनूठे बलिदान की परम्परा को कायम करके उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को अपने देश की आन बान और शान पर मर मिटने की प्रेरणा भी दी है. अंग्रेज मानकर चल रहे थे कि राजा शकंरशाह की भयानकतम सजा से क्रांतिकारी भयभीत होकर शांत हो आयेगें किन्तु अंग्रेजों का अनुमान गलत निकला. राजा शंकरशाह की जघन्य हत्या से विद्रोह की चिंगारी बुझी नहीं, वरन वह और धधक उठी. ५२ वीं रेजिमेंट के सैनिक टुकड़ियों का व्यवहार सदैव शालीनता और सम्मानपूर्ण भावना से ओतप्रोत होता था. किन्तु इस घटना ने सभी को उव्देलित कर दिया और शासन के विरोध में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहलाया. जो महान सैनिक क्रांति के रूप में विश्व इतिहास में दर्ज है इस संग्राम से लेकर आजादी के लिए जितनी भी लड़ाईयां लड़ी गयी उसमे गढ़ा-मंडला की एक विशिष्ट तथा महत्वपूर्ण भूमिका रही है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि १८५७ के पूर्व में जितने भी विद्रोह हुए उसका नेतृत्व आदिवासियों ने ही किया था. जिसका उल्लेख व सम्मान भारतीय इतिहासकारों ने नहीं किया.।
राजा शंकरशाह ने जीवित रहकर जो करना चाहा था वह उसके बलिदान के उपरांत पूरा हुआ. इस तरह राजा शंकरशाह ने गढ़ा-मंडला की गौरवशाली बलिदानी परम्परा में एक और अध्याय जोड़ा. लगभग लगभग ३०० वर्ष पूर्व गोंड वंश की अनेक वीरांगनाओं ने भी मुगल साम्राज्य के विरुद्ध हथियार उठाये थे. गोंडवाना के गढ़ मंडला की स्वाधीनता की रक्षा के लिए इन वीरांगनाओं ने रणभूमि में प्राण न्यौछावर किये थे. उनके वंशजों ने भी उनकी बलिदानी परम्परा का निर्वाह किया. इन्हीं घटनाओं के पृष्ठभूमि में १५ अगस्त १९४७ को भारतीय स्वतंत्रता की पूर्णाहुति हुई और हमें लंबी दासता से मुक्ति मिली. आज स्वाधीनता के इस महल में उनके भित्तिचित्र भले ही न हो और प्रार्थना के समय उन्हें भले ही स्मरण न किया जाता हो पर इन रणबांकुरों के रक्तीले हाथ कहीं न कहीं और कभी न कभी उभरे हुये अवश्य ही दिखायी देंगे. आजादी की लड़ाई लड़ी जाती है और लोहे की उन जंजीरों को काटने के लिए जिनसे सारा राष्ट्र साम्राज्यवादी ताकत से कस दिया जाता है, ये जंजीरे सुनहरी हथौड़ी से कट नहीं सकती और उनके टुकड़े-टुकड़े करने के लिए फौलादी या सार्थक हथौड़ी चाहिए, जो लाखो बहादुरों के साथ गोंडवाने की परंपरा रही है. यह निर्विवाद सत्य है, भले ही आप अपने देश के लिए सत्य न हो, क्योंकि अपने देश ने आजादी पायी है, अहिंसा के रास्ते पर चलकर किन्तु यह सत्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि बिना रक्त के, बिना बलिदान के, बिना सूली के रस्सों से आजादी नहीं मिल सकती. यदि गोंडवाने का विगत १५० वर्षों का इतिहास क्रमशः प्रमाणिकता के साथ दस्तावेजों के आधार पर संकलित किया जाय तो उनमे न जाने अन्जाने महान क्रांतिकारी शहीद मिलेंगे जिनके खून से आजाद भारत का इतिहास तैयार किया गया लेकिन एक षड्यंत्र के तहत छुपाया जा रहा. रामगढ़ डिंडोरी, घुघरी, देवहारगढ़, बिछिया, नारायाणगंज, मंडला के तुमल संघर्ष और गढ़ा का नरसंहार साक्षी है कि विनाश के दर्शन से ही निर्माण की सत्य प्रतिबिम्ब नजर आता है. इस प्रकार गोंडवाने में स्वाधीनता-आंदोलनों के सृष्टाओं के गढ़ा मडला के प्रेरणा-स्त्रोत अग्रिणी नेताओं की भूमिका इतिहास बन गयी. जिसे हम सभी को एक दूसरे के सहयोग से पुनः स्थापित करने के लिए तन-मन-धन से समर्पित होना पड़ेगा.।
पराधीन राष्ट्र की जागरूकता का मापदंड है साधारण जनता की बेचैनी और अवतार रुपाई की हर कीमत पर प्राणोत्सर्ग की तैयारी और अटूट संकल्पता. फिरंगी शासन को ध्वस्त करने के लिए देश को अपने सपूतों को वेदी पर चढ़ाना पड़ा. वे केवल प्रतीक है उस दार्शनिक भावना के जिसमे आजादी को मानव का जन्म सिद्ध अधिकार माना जाता है और बलिदान, यातनाएं और चुनौतियाँ अधिकार प्राप्ति के साधन होते हैं. यह दार्शनिक सिधांत गुलाम देश और गुलाम समाज दोनों के लिए हर कालखण्ड में श्रेयष्कर और अभिमान मय है. आजादी पाने के लिए हर उपाय गौरव और गरिमा समझा जाता है. देश में जो कुछ भी प्रयत्न इस मंजिल तक पहुंचने के लिए किये गये वे हमारे इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों के अमूल्य दस्तावेज हैं. “१८ सितम्बर” ना सिर्फ गोंडवाना के वंशजों के लिए वरण सम्पूर्ण देशवासियों के लये गर्व और गौरव का दिन है. १८ सितम्बर को राजा शंकरशाह व कुंवर रघुनाथ शाह की सहादत अजर अमर है, आओ हम सब सृद्धा सुमन अर्पित कर अपनी महान महात्माओं को श्रद्धांजलि दें।
गोन्डवाना राज के राजा संग्रामशाह मड़ावी के 52 गढ़ एवम 57 परगनों में विशाल सत्ता कायम थी जिसमें से कुछ गढ़ व परगनों को अलग करके 36गढ़ बना दिया गया। गोन्डवाना को तीन भागों में बांट कर खंडित किया गया अर्थात गोन्ड समुदाय को खंडित किया गया है।
यहां पर सिर्फ 52 गढ़ की ही जानकारी दी जा रही है
जबलपुर जिला में
1.अमोदा गढ़,2 कन्नौजा गढ़,3 गढ़ा कटनगा 4 दियागढ़ 5 पचेलगढ़ ,6 पाटनगढ़ ,7 बरगिगढ़
मंडला जिला में
8.अमरगढ़ ,9. झाँजनगढ़ 10.देवरहगढ 11 प्ररताबगढ़ 12 बाँकागढ़ 13, मारू गढ़ 14 रायगढ़
सागर जिले में
15 इटावागढ़ 16खिमलासा 17 गढ़ पहरा 18 गढ़ा कोटा 19 गौर झामर 20 देवरी गढ़ 21 धमोनी 22 रहलीगढ़ 23 राहतगढ़ 24 शाहगढ़
दमोह जिला में
25. दमोह 26 मडिया डोह 27 सिंगौरगढ़ 28 हट्टागढ़
पन्ना जिले में
29. पवाई गढ़ 30. शहा नगर
नरसिंहपुर जिले में
31 निमुवा गढ़ 32 भंवरगढ़ 33 पुन्ना गढ़ 34 बारीगढ़
सिवनी जिले में
35. करूवा गढ़ 36 घँसौर
रायसेन जिला में
37 कारूबाग 38 रायसेन 39 बारीगढ़
भोपाल जिला में
40 गन्नौरगढ़ 41 भँवरासी 42 चौकीगढ़ 43 भोपाल
होसंगाबाद जिला में
44 ओपादगढ़ 45 बाघमार 46 मकड़ाई 47 फतेहपुर
नागपुर जिले में
48 डोंगर तालगढ़
छिंदवाड़ा जिला में
49.चौराई गढ़
बालाघाट जिला में
50.टीपागढ़
बिलासपुर जिले में
51. लाफ़ागढ
विदिशा जिला में
52 कुरवाई
साभार: गोन्डवाना गढ़ दर्शन लेखक तिरु मोतीराम छतीराम कंगाली
संकलन: कोसो होड़ी लंकाकोट ,,,।